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ग़ज़ल
जामा-ए-दाग़ को मल्बूस कर अपना दिन रात
क्यूँकि ये जामा तिरे क़द पे निपट ठीक है दिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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ग़ज़ल
दिल मिरे दिल ग़म-ए-दुनिया से निपट ले कि अभी
तुझे करनी है नए ज़ख़्म की मेहमानी भी