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नज़्म
नज़्र-ए-अलीगढ़
इस गुल-कदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है
फिर अब्र गरजने वाले हैं फिर बर्क़ कड़कने वाली है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
यादें
लो वो चाह-ए-शब से निकला पिछले-पहर पीला महताब
ज़ेहन ने खोली रुकते रुकते माज़ी की पारीना किताब
अख़्तरुल ईमान
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ग़ज़ल
रिवाजों की वो कसरत है कि दम घुटने लगा अपना
उठा कर अब 'रज़ा' पारीना क़िस्सा रख दिया जाए
रज़ा मौरान्वी
नज़्म
पत-झड़
जो शायद अब मुझे तक़वीम-ए-पारीना समझते हैं
मैं डरता हूँ कि इस दुनिया में कोई भी नहीं मेरा
उबैदुर्रहमान आज़मी
ग़ज़ल
बर्क़ी आज़मी
नज़्म
किताब का कीड़ा
तू ने तो हर इक सम्त लगाई हैं सुरंगें
पारीना हो फ़रमान किताबें हूँ निसाबी
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
पारीना हो चुकी है बहुत दास्तान-ए-इश्क़
इक शहर-ए-दश्त नज्द में ता'मीर हो चुका