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ग़ज़ल
जब किसी ने आन कर दिल से मिरे पुरख़ाश की
बात तब आशिक़-गरी की मैं जहाँ में फ़ाश की
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
नज़्म
ए'तिराफ़
दश्त-ए-पुर-ख़ार को फ़िरदौस-ए-जवाँ जाना था
रेग को सिलसिला-ए-आब-ए-रवाँ जाना था
असरार-उल-हक़ मजाज़
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ग़ज़ल
तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती
कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं
दाग़ देहलवी
नज़्म
आलम कितने
कितने माथों के अभी सर्द हैं रंगीन गुलाब
गर्द अफ़्शाँ हैं अभी गेसू-ए-पुर-ख़म कितने