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ग़ज़ल
ले रहा है दर-ए-मय-ख़ाना पे सुन-गुन वाइ'ज़
रिंदो हुश्यार कि इक मुफ़सिदा-पर्दाज़ आया
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ये महफ़िल ज़ाहिदान-ए-ख़ुश्क की महफ़िल है ऐ रिंदो
ज़रा इस बज़्म में ज़िक्र-ए-शराब आहिस्ता आहिस्ता
शकील बदायूनी
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ग़ज़ल
चलो वाइ'ज़ से हरगिज़ कुछ न बोलो चुप रहो रिंदो
हुआ जोश-ए-ग़ज़ब या सर पे उस नादाँ के जिन आया
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बज़्म-ए-रिंदाना में क्या रिंद-ओ-वर'अ का चर्चा
शैख़-साहिब है बहुत ये तो हिमाक़त की बहस
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
आज तस्बीह-ओ-मुसल्ला ले के 'आरिफ़' बन गया
कल जो रूह-ए-मय-कदा था रिंद-ओ-बादा-नोश था
आरिफ़ नक़्शबंदी
ग़ज़ल
रिंद-ओ-ज़ाहिद शैख़-ओ-सूफ़ी सब के सब तिश्ना ही थे
किस को देते मय-कदा जब मो'तबर कोई न था