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शेर
सुर्ख़-रू होता है इंसाँ ठोकरें खाने के बा'द
रंग लाती है हिना पत्थर पे पिस जाने के बा'द
सय्यद ग़ुलाम मोहम्मद मस्त कलकत्तवी
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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
नज़्म
दर्द आएगा दबे पाँव
दर्द आएगा दबे पाँव लिए सुर्ख़ चराग़
वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मौज़ू-ए-सुख़न
आज तक सुर्ख़ ओ सियह सदियों के साए के तले
आदम ओ हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है?