aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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Wahshat Raza Ali Kalkatvi
1881 - 1956
Poet
Syed Gulam Mohammad Mast Kalkattvi
1896 - 1941
Khalish Kalkatvi
1918 - 1994
Aas Rahbar Kalkattavi
born.2000
Shakir Kalkattvi
1914 - 1968
Asghar Kalkattvi
Hindi Pustak Agency, Kolkata
Publisher
magmoom kalkattawi
Tahir Ali Shakir Kalkatvi
Author
Meelan Press, kalkatta
Khan Bahadur Raza Ali Wahshat Kalkatvi
Mohammad Abdul Ghafoor Kalkattawi
Dayar-e-Fikr-o-Fan, Kalkatta
santi nikiten press, calcutta
Sky Publications, Kalkatta
ko.ii chhii.nTaa pa.De to 'daaG' kalkatte chale jaa.e.naziimaabaad me.n ham muntazir saavan ke baiThe hai.n
हाँ, तो मैं कहाँ हूँ, अभी मेरे हवास दुरुस्त नहीं, लेकिन ये ज़मीन और ये आसमान तो कुछ जाने बूझे मालूम होते हैं। लोगों को एक तरफ़ बढ़ता हुआ देख रहा हूँ। मैं भी उन्हीं के साथ हो लूँ... “पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं...” अब इन रास्तों पर...
kalkatte kaa jo zikr kiyaa tuu ne ham-nashii.nik tiir mere siine me.n maaraa ki haa.e haa.e
आशा सैर करने गई लेकिन उमंग से नहीं जो मा’मूली सारी पहने हुए थी, वही पहने चल खड़ी हुई। न कोई नफ़ीस साड़ी न कोई मुरस्सा’ ज़ेवर, न कोई सिंगार जैसे बेवा हो। ऐसी ही बातों से लाला जी दिल में झुँझला उठते थे। शादी की थी ज़िंदगी का लुत्फ़...
शारदा ने अपना सर मुख़्तार के कंधे पर गिरा दिया, “आप बातें करना जानते हैं... मुझसे अपने दिल की बात नहीं कही जाती।” देर तक दोनों एक दूसरे में मुदग़म रहे। जब मुख़्तार वहां से गया तो उसकी रूह एक नई और सुहानी लज़्ज़त से मा’मूर थी। सारी रात वो...
कलकत्तेکلکتے
Kolkata, Calcutta
Ghalib Ka Safar-e-Kalkatta Aur Kalkattey Ka Adabi Mareka
Khaliq Anjum
Research
Ghalib
T N Raaz
Exegesis
Deewan-e-Wahshat
Deewan
Ghalib Aur kalkatta
Shahid Mahuli
Compiled
Ham Bawlay Kuttay
Nayyar Iqbal Alvi
Short-story
Pari Khana-e-Ulfat
Majmua
Tarana-e-Wahshat
Shumaara Number-001
Indian Culture, Calcutta
Awarah Jabein
Rahnuma-e-Abrar
Khwab-e-Kalkatta
Mohammad Amjad Husain
Others
Shumaara No-009
Nazish Siddiqui Sultanpuri
Sep 1971Sabd-e-Gul, Calcutta
Shumaara No-006
Jun 1971Sabd-e-Gul, Calcutta
Shumaara No-005
May 1971Sabd-e-Gul, Calcutta
Shumara Number-001
May 1951Magazine Culcatta
ये तो हमारी मिडिल क्लास के क़वानीन हैं कि ये न करो वो न करो... तवील छुट्टियों के ज़माने में फ़ारूक़ ने भी मुझे ख़ूब सैरें कराईं। कलकत्ता, लखनऊ, अजमेर कौन जगह थी जो मैंने उसके साथ न देखी। उसने मुझे हीरे-जवाहरात के गहनों से लाद दिया। अब्बा को लिख...
वो हैरान था कि वो ग़ाज़ा कहाँ गया, वो सिंदूर कहाँ उड़ गया। वो सर कहाँ ग़ायब हो गए जो उसने कभी यहां देखे और सुने थे। ज़्यादा अर्से की बात नहीं, अभी वो कल ही तो (दो बरस भी कोई अर्सा होता है) यहां आया था। कलकत्ते से जब...
(एक आह-ए-सर्द के साथ तास्सुफ़ आमेज़ लहजे में आहिस्ता) चिड़िया रैन-बसेरा चिड़िया के भाग फिर अच्छे कि अपने घोंसले में तो बैठी है। और मैं नवाब इलाही बख़्श ख़ां की बेटी... ग़रीब के सर पर भी अपना झोंपड़ा होता है, लेकिन मेरे लिए दिल्ली में किराए के मकानों के...
एक महीने बाद मुहल्ले में शोर मचा कि फातो किसी के साथ भाग गई है। सब उसको बुरा भला कह रहे थे। औरतें ख़ासतौर पर उसके किरदार में कीड़े डाल रही थीं और फातो अपने मियां साहब के साथ कलकत्ते में अज़दवाजी ज़िंदगी बसर कर रही थी। उसका शौहर हर...
तेरह बरस हवालात में रहा, 7 रजब 1228 हि. को मेरे वास्ते हुक्म दवाम हब्स सादर हुआ, एक बेड़ी मेरे पांव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदाँ मुक़र्रर किया... मगर नज़्म-ओ-नस्र को मशक़्क़त ठहराया। बरसों के बाद उस जेलख़ाने से भागा। तीन बरस बिलाद-ए-शिरकिया में फिरता रहा। पायानेकार...
“अल्लाह मियां... मैंने सिगरेट... बेड़ा ग़र्क़ एक पूरी डिबिया सिगरटों की मेरे नेकर की जेब में पड़ी है। अगर किसी ने देख ली तो क्या होगा... कहीं सकलेन ही न ले उड़े ... अल्लाह मियां... मेरी समझ में नहीं आता कि सिगरेट पीने में क्या बुराई है? अब्बा जी ने...
आनंद! ख़त में एक दो दिन देर हो जाने की कोई ख़ास वजह नहीं, दफ़्अतन ही मेरी सलाह कलकत्ता जाने की हो गई है। बात ये है कि किसी ज़रूरी काम से अचानक इन्द्रनाथ कलकत्ते जा रहा है। मुझे यहाँ काम तो आज कल है नहीं। कॉलेज बंद है और...
अर्ज़ किया, “ज़िंदगी अज़ाब थी साहब, आज बंबई जा रही है टीम तो कल दिल्ली और परसों कलकत्ते। दो मर्तबा तो विलाएत जाने के लिए भी इसरार हुआ बमुश्किल जान छुड़ाई। अपनी बात ये भी कि एक मर्तबा बंबई में एक मार्का का मैच हुआ इत्तफ़ाक़ से सबसे पहले मैं...
"Ask me another" मंज़ूर ने कहा था। "अल्लाह! लेकिन ये तुम सबका आख़िर क्या होगा।" फ़िक्र-ए-जहाँ खाए जा रही है। मरे जा रहे हैं। सचमुच तुम्हारे चेहरों पर तो नहूसत टपकने लगी है। कहाँ का प्रोग्राम है? मसूरी चलते हो? पूरलुत्फ़ सीज़न रहेगा अब की दफ़ा। बंगाल? अरे हाँ, बंगाल।...
घसीटे ने घिघिया कर बाबू की तरफ़ देखा। उन्होंने माँ की गाली देकर उसे फाटक के बाहर ढकेल दिया। ऐसे भिक्मंगों के साथ जब वो बिला टिकट सफ़र करें और किया ही क्या जा सकता है? घसीटे ने स्टेशन से बाहर निकल कर इत्मिनान की सांस ली कि ख़ुदा ख़ुदा...
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