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ग़ज़ल
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता मुंक़लिब होती गई रस्म-ए-चमन
धीरे धीरे नग़्मा-ए-दिल भी फ़ुग़ाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
किसी ऐसे शरर से फूँक अपने ख़िर्मन-ए-दिल को
कि ख़ुर्शीद-ए-क़यामत भी हो तेरे ख़ोशा-चीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
सबा अफ़ग़ानी
ग़ज़ल
बिखरी इक बार तो हाथ आई है कब मौज-ए-शमीम
दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है