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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
दहन उस रू-ए-किताबी में है पर ना-पैदा
इस्म-ए-आज़म वही क़ुरआँ में निहाँ है कि जो था