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ग़ज़ल
'ज़ौक़' ज़ेबा है जो हो रीश-ए-सफ़ेद-ए-शैख़ पर
वसमा आब-ए-बंग से मेहंदी मय-ए-गुल-रंग से
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
यूँ ही तो ख़राबात में आओ कि सरासर
या बादा है या बंग है या नग़्मा है या रक़्स