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ग़ज़ल
मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है
शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
बाँधी ज़ाहिद ने तवक्कुल पर कमर सौ बार चुस्त
लेकिन आख़िर बाइस-ए-सुस्ती-ए-हिम्मत खुल गई
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अजाइब लुत्फ़ हैं कू-ए-तवक्कुल की फ़क़ीरी में
ख़ुदाई है यहाँ धूनी रमाए जिस का जी चाहे