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ग़ज़ल
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है इस का तबीब
जो नहीं इस मरज़ का तालिब सदा रंजूर है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
जूँ पंच-शाख़ा तू न जला उँगलियाँ तबीब
रख रख के नब्ज़-ए-आशिक़-ए-तफ़्ता-जिगर पे हाथ
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
कुछ तप-ए-ग़म को घटा क्या फ़ाएदा इस से तबीब
रोज़ नुस्ख़े में अगर ख़ुर्फ़ा घटे काहू बढ़े