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ग़ज़ल
शराब-ए-हुस्न को कुछ और ही तासीर देता है
जवानी के नुमू से बे-ख़बर होना लड़कपन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
खेला बचपन झूमा लड़कपन लहकी जवानी चौबारों में
लाठी थामे देखा बुढ़ापा नगरी के गलियारों में
इशरत क़ादरी
ग़ज़ल
उन्हें हरगिज़ ये दिल अपना कि शीशे से भी नाज़ुक है
न देंगे हम कि उन में ढंग अभी तक हैं लड़कपन के
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ख़ुदाया रहम इन मासूम बच्चों के लड़कपन पर
जिन्हें काग़ज़ सियह करने थे वो काग़ज़ उठाते हैं
मुजाहिद फ़राज़
ग़ज़ल
लड़ाएँ आँख वो तिरछी नज़र का वार रहने दें
लड़कपन है अभी नाम-ए-ख़ुदा तलवार रहने दें
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
जवानी की दुआएँ माँगी जाती थीं लड़कपन में
लड़कपन के मज़े अब याद आते हैं जवाँ हो कर