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ग़ज़ल
कहें हैं सब्र किस को आह नंग ओ नाम है क्या शय
ग़रज़ रो पीट कर उन सब को हम यक बार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुझ को तो सिखा दी है अफ़रंग ने ज़िंदीक़ी
इस दौर के मुल्ला हैं क्यूँ नंग-ए-मुसलमानी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हवस होगी असीर-ए-हल्क़ा-ए-नेक-ओ-बद-ए-आलम
मोहब्बत मावरा-ए-फ़िक्र-ए-नंग-ओ-नाम है साक़ी
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हुई जंग-ओ-हर्ब की इब्तिदा तो बताओ बस यही इक पता
कोई तुम में नंग-ए-वक़ार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
इब्तिदा में जिन्हें हम नंग-ए-वफ़ा समझे थे
होते होते वो गिले हुस्न-ए-बयाँ तक पहुँचे
हफ़ीज़ होशियारपुरी
ग़ज़ल
नंग-ए-मय-ख़ाना था मैं साक़ी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे या पीर-ए-मय-ख़ाना मुझे