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ग़ज़ल
जो बैठा है सफ़-ए-मातम बिछाए मर्ग-ए-ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में वो दानिश-वर है ख़तरे में
हबीब जालिब
ग़ज़ल
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
बस अपनी बेबसी की सातवीं मंज़िल में ज़िंदा हूँ
यहाँ पर आग भी रहती है और नौहा भी रहता है
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
मरिए इस हसरत में गर क़ातिल न हाथ आवे कहीं
रोइए अपने पे ख़ुद गर नौहा-ख़्वाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
जनाज़ा मेरी तन्हाई का ले कर लोग जब निकले
मैं ख़ुद शामिल था अपनी ज़िंदगी के नौहा-ख़्वानों में