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ग़ज़ल
ये गधा जो अपनी ग़फ़्लत से है बेवक़ूफ़ इतना
जो ये ख़ुद को जान जाता बड़ा होशियार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है
शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं
वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
शाहों पे फ़ख़्र करते थे इस मुल्क के गदा
था मिस्ल-ए-जाम-ए-जम मय-ओ-मीना-ए-लखनऊ