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ग़ज़ल
जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि मैं हुक़्क़ा नहीं पीता
भरूँ जल्दी से गर सुल्फ़ा कहे सुल्फ़ा नहीं पीता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
इन लबों के बोसे के लालच में जलता है बहिश्त
सुन ले 'उज़लत' कान धर कहता है हुक़्क़ा गुड़गुड़ा
वली उज़लत
ग़ज़ल
नीलम है धरा हुक़्क़ा-ए-याक़ूत में गोया
हैं दाँत सियह मिस्सी से पाँ से है दहन सुर्ख़
मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी
ग़ज़ल
गर फिर भी अश्क आएँ तो जानूँ कि इश्क़ है
हुक़्क़े का मुँह से ग़ैर की जानिब धुआँ न छोड़
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
वहशत में क़ैद-ए-दैर-ओ-हरम दिल से उठ गई
हक़्क़ा कि मुझ को इश्क़ ने रस्ता बता दिया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
मिरी छाती पे रख कर दस्त की तश्ख़ीस हुकमा ने
ये सीना कान-ए-गंधक या कि आतिश-दान है क्या है