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ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
वो जो हुक्म दें बजा है, मिरा हर सुख़न ख़ता है
उन्हें मेरी रू-रिआयत कभी थी न है न होगी
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
दिलबरी ठहरा ज़बान-ए-ख़ल्क़ खुलवाने का नाम
अब नहीं लेते परी-रू ज़ुल्फ़ बिखराने का नाम