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ग़ज़ल
मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर
बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक जाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूँ-चकाँ अपना
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सुख़न में ख़ामा-ए-ग़ालिब की आतिश-अफ़्शानी
यक़ीं है हम को भी लेकिन अब उस में दम क्या है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
निगाह-ए-चश्म-ए-हासिद वाम ले ऐ ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी
तमाशाई हूँ वहदत-ख़ाना-ए-आईना-ए-दिल का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है सरीर-ए-ख़ामा रेज़िश-हा-ए-इस्तिक़्बाल-ए-नाज़
नामा ख़ुद पैग़ाम को बाल-ओ-पर-ए-परवाज़ है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दिल को इज़्हार-ए-सुख़न अंदाज़-ए-फ़तह-उल-बाब है
याँ सरीर-ए-ख़ामा ग़ैर-अज़-इस्तिकाक-ए-दर नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चेहरा-ए-जानाँ से शर्मा कर छुपाया ख़ुल्द में
ख़ामा-ए-तक़दीर ने खींचा जो नक़्शा हूर का
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
न खींच ऐ सई-ए-दस्त-ए-ना-रसा ज़ुल्फ़-ए-तमन्ना को
परेशाँ-तर है मू-ए-ख़ामा से तदबीर मानी की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ऐ 'ज़फ़र' लिख तू ग़ज़ल बहर ओ क़वाफ़ी फेर कर
ख़ामा-ए-दुर-रेज़ से हैं अब गुहर-बारी में हम
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
कुदाल-ए-ख़ामा से बोता हूँ मैं जुनूँ 'सारिम'
सो उगते रहते हैं दीवाने मेरे काग़ज़ से