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ग़ज़ल
वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के फ़ैज़ से
रिंद का साक़ी का मय का ख़ुम का पैमाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
ग़नीमत तुम इसे समझो कि इस ख़ुम-ख़ाने में यारो
नसीब इक-दम दिल-ए-ख़ुर्रम हमें भी हो तुम्हें भी हो
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अता की जब कि ख़ुद पीर-ए-मुग़ाँ ने पी भी ले ज़ाहिद
ये कैसा सोचना है तुझ पे क्यूँ इल्ज़ाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
तिरा मय-कदा सलामत तिरे ख़ुम की ख़ैर साक़ी
मिरा नश्शा क्यूँ उतरता मुझे क्यूँ ख़ुमार होता
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
ख़ुम में सुबू में जाम में निय्यत लगी रही
मय-ख़ाने ही में हम रहे मय-ख़ाना छोड़ कर