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ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मशरिक़ हो या कि मग़रिब हो एशिया कि यूरोप
हर ख़ित्ता-ए-ज़मीं पर पहुँची सदा-ए-उर्दू
रिज़वान बनारसी
ग़ज़ल
कहो ये रिंदान-ए-एशिया से कि बज़्म-ए-इशरत के ठाठ बदले
उड़न-खटोला है अब मिसों का गई परीजान की वो डोली
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
रिवायत की क़नातें जिस हवा से जलने वाली हैं
सवाद-ए-एशिया में वो हवा अब तेज़ चलती है