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ग़ज़ल
धरी रह जाएगी पाबंदी-ए-ज़िंदाँ जो अब छेड़ा
ये दरबानों को समझा दो कि दीवाने बहुत से हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
वो हवाएँ वो घटाएँ वो फ़ज़ा वो उस की याद
हम भी मिज़राब-ए-अलम से साज़-ए-दिल छेड़ा किए
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
सदा-ए-दर्द की ख़ातिर तुम्हें 'कौसर' ने छेड़ा है
शिकस्ता-साज़ के बेदार तारो तुम न सो जाना