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ग़ज़ल
मिरी रातों की ख़ुनकी है तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म में
ये बढ़ती छाँव भी कितनी घनी मालूम होती है
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती
कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
राज़ इलाहाबादी
ग़ज़ल
हटा कर रुख़ से गेसू सुब्ह कर देना तो मुमकिन है
मगर सरकार के बस में नहीं तारे छुपा देना
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
तज़ईन-ए-लब-ओ-गेसू कैसी पिंदार का शीशा टूट गया
थी जिस के लिए सब आराइश उस ने तो हमें देखा भी नहीं
फ़हमीदा रियाज़
ग़ज़ल
दिल-ए-'मुज़्तर' को क़ैद-ए-दाम-ए-गेसू-ए-परेशाँ से
रिहा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते