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ग़ज़ल
अब वा'इज़-ओ-ज़ाहिद हैं बहम दस्त-ओ-गरेबाँ
इक जंग-ए-जमल आज मसाजिद में छिड़ी है
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
सफ़र जारी है सदियों से हमारा नब्ज़-ए-आलम में
निगाहों से ज़माने की मगर रू-पोश रहते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
तालिब-ए-सुल्ह हूँ मैं और नज़र तालिब-ए-जंग
रात दिन लड़ने पे तय्यार बड़ी मुश्किल है
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ज़ोर पर है ज़ोहद के पर्दे में जंग-ए-ज़र-गरी
शो'बदा-बाज़ी वही है सादा ईमानों के साथ