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ग़ज़ल
क्यूँ न चेहरे पे मलूँ ख़ाक-ए-दर-ए-यार को मैं
यही वो ख़ाक है जो ख़ाक-ए-शिफ़ा होती है
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
हम से जो 'मीर' उड़ कर अफ़्लाक-ए-चर्ख़ में हैं
उन ख़ाक में मलूँ की काहे को हमसरी की
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
गर मलूँ मैं कफ़-ए-अफ़्सोस तो हँसता है वो शोख़
हाथ में हाथ किसी शख़्स के दे कर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम
चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले