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ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सुन ऐ क़ासिद उन्हें ज़िद है तो हम को बात की पच है
मुनासिब वो अगर समझें तो ये तकरार रहने दें
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
कुछ हर बद-ज़न कुछ वो बद-ज़न दोषी अब किस को ठहराएँ
उल्टी-सीधी बात की पच पर याराने बदनाम हुए