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ग़ज़ल
क्या कहूँ तारीकी-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म अंधेर है
पुम्बा नूर-व-सुब्ह से कम जिस के रौज़न में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
लाग की आग लग उठी पम्बा तरह सा जल गया
रख़्त-ए-वजूद जान-ओ-तन कुछ न बचा जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
ग़ज़ल
हुई है माने-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा ख़ाना-वीरानी
कफ़-ए-सैलाब बाक़ी है ब-रंग-ए-पुम्बा रौज़न में
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अबस पम्बा न रख दाग़-ए-दिल-ए-सोज़ाँ पे तू मेरे
कि अंगारे पे होगा चारागर रूई से क्या हासिल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
शाम सुर्मा दर-गुलू है तो सहर पम्बा-ब-गोश
किस जहाँ में 'फ़ैज़' को तू ने ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दिया
फ़ैज़ झंझानवी
ग़ज़ल
धोऊँ सद-आब-ए-तेग़ से ऐ पम्बा जो कभू
दामन से तेरे दामन दाग़-ए-जिगर मिले
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा
ग़ज़ल
पर्दा शराब-ए-इश्क़ का मंसूर से खुला
नद्दाफ़ था कि पम्बा-ए-मीना धनक गया
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
वज़्अ'-ए-सुबुक उस की थी तिस पे न रखता था रीश
मूछें थीं और कानों पर पट्टे भी थे पंबा-साँ