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ग़ज़ल
क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का
मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
जहान-ए-महफ़िल-ए-शब में सभी आँखें भिगोतें हैं
सभी को अपने अपने रफ़्तगाँ की याद आती है
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
गुम हो के हर जगह हैं ज़-ख़ुद रफ़्तगान-ए-इश्क़
उन की भी अहल-ए-कश्फ़-ओ-करामात ज़ात है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
रह गया 'मुश्ताक़' दिल में रंग-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ
फूल महँगे हो गए क़ब्रें पुरानी हो गईं
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
रात भर रहता है ज़ख़्मों से चराग़ाँ दिल में
रफ़्तगाँ तुम ने लगा रक्खा है मेला अच्छा