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ग़ज़ल
धरती में भी रेंग रही है ख़ून की इक शिरयान
पत्थर की रग रग में मचला अश्कों का तूफ़ान
सय्यद नसीर शाह
ग़ज़ल
रेंग रही थीं अमर-लताएँ छुप छुप कर शादाबी में
उर्यां होती शाख़ों से अब भरम खुला ज़ेबाइश का