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ग़ज़ल
मर्ग-ए-'जिगर' पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मता-ए-दीन-ओ-दानिश लुट गई अल्लाह-वालों की
ये किस काफ़िर-अदा का ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ है साक़ी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इक गर्दन-ए-मख़्लूक़ जो हर हाल में ख़म है
इक बाज़ू-ए-क़ातिल है कि ख़ूँ-रेज़ बहुत है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
यूँ दाद-ए-सुख़न मुझ को देते हैं इराक़ ओ पारस
ये काफ़िर-ए-हिन्दी है बे-तेग़-ओ-सिनाँ ख़ूँ-रेज़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
क्या हिना ख़ूँ-रेज़ निकली हाए पिस जाने के बाद
बन गई तलवार उन के हाथ में आने के बाद
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
वहशत-अफ़्ज़ा गिर्या-हा मौक़ूफ़-ए-फ़स्ल-ए-गुल 'असद'
चश्म-ए-दरिया-रेज़ है मीज़ाब-ए-सरकार-ए-चमन
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
होते हैं जाते ही मकतब में परी-रू ख़ूँ-रेज़
क्या ये जल्लादों को उस्ताद किया करते हैं