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ग़ज़ल
थी निगह मेरी निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की नक़्क़ाब
बे-ख़तर जीते हैं अरबाब-ए-रिया मेरे बा'द
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रिया-कारी से बचिए ये बहुत ज़हरीली नागिन है
ये नागिन ज़िंदगी भर की 'इबादत छीन लेती है
आलम निज़ामी
ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
गो भलाई करके हम-जिंसों से ख़ुश होता है जी
तह-नशीं उस में मगर दुर्द-ए-रिया पाते हैं हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
मोहतसिब और हम हैं दोनों मुत्तफ़िक़ इस बाब में
बरमला जो मय-कशी हो बे-रिया हो जाएगी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
ग़ज़ल
वो मेरा दोस्त है 'मंज़ूर' लेकिन जब भी मिलता है
ख़ुलूस-ए-दिल में शामिल कुछ रिया-कारी भी होती है