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ग़ज़ल
इरादा मेरे खाने का न ऐ ज़ाग़-ओ-ज़ग़न कीजो
वो कुश्ता हूँ जिसे सूँघे से कुत्तों का बदन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
होता है गुल के सूँघे से दूना गिरफ़्ता दिल
मुझ सा भी बद-दिमाग़ कम इस बोस्ताँ में है
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
औन अब्बास औन
ग़ज़ल
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो