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ग़ज़ल
क्या जाने कब किस साअत में तब्अ' रवाँ हो जाए
ये दरिया बे-मौसम भी तुग़्यानी करता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ख़ून-ए-दिल से चश्म-ए-तर तक चश्म-ए-तर से ता-ब-ख़ाक
कर गए आख़िर गुल-ओ-गुलज़ार हर वीराना हम
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब न क्यूँ हो साक़ी
मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में