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ग़ज़ल
वो तप-ए-इश्क़-ए-तमन्ना है कि फिर सूरत-ए-शम्अ'
शो'ला ता-नब्ज़-ए-जिगर रेशा-दवानी माँगे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कुछ तप-ए-ग़म को घटा क्या फ़ाएदा इस से तबीब
रोज़ नुस्ख़े में अगर ख़ुर्फ़ा घटे काहू बढ़े
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
तप-ए-उल्फ़त में 'सबा' है ये तुम्हारा दर्जा
दिक़ के आसार हैं बीमार नज़र आते हो
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं
आग हम संग की मानिंद निहाँ रखते हैं