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ग़ज़ल
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अगर कुछ आश्ना होता मज़ाक़-ए-जब्हा-साई से
तो संग-ए-आस्तान-ए-का'बा जा मिलता जबीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वही आस्ताँ है वही जबीं वही अश्क है वही आस्तीं
दिल-ए-ज़ार तू भी बदल कहीं कि जहाँ के तौर बदल गए
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
मोहब्बत ख़ेशतन बीनी मोहब्बत ख़ेशतन दारी
मोहब्बत आस्तान-ए-क़ैसर-ओ-किसरा से बे-परवा