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ग़ज़ल
ये साक़ी-ए-महविश है वो जाम-ए-मय-ए-रंगीं
है और कहाँ जन्नत जन्नत के तमन्नाई
कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
बुतान-ए-महविश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
हुए उस मेहर-वश के जल्वा-ए-तिमसाल के आगे
पर-अफ़्शाँ जौहर आईने में मिस्ल-ए-ज़र्रा रौज़न में
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आपस में आज दस्त-ओ-गरेबाँ है रोज़ ओ शब
ऐ मेहर-वश ज़री का नहीं मू-ए-बाफ़-ए-ज़ुल्फ़
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
तर्क-ए-मय को मुद्दतें गुज़री हैं लेकिन मोहतसिब
साक़ी-ए-महवश अगर आतिश-ब-जाम आ ही गया