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नज़्म
है मिरी जुरअत से मुश्त-ए-ख़ाक में ज़ौक़-ए-नुमू
मेरे फ़ित्ने जामा-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद का तार-ओ-पू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बसारतें क्या बसीरतें भी तो अक़्ल-ओ-दानाई खो चुकी हैं
न जाने कितने ही रंग मख़्फ़ी हैं इस धनक में
तारिक़ क़मर
नज़्म
बड़े आक़िल बड़े दाना ने निकाला है ये दाम
ख़ूब देखा तो ख़ुशामद ही की आमद है तमाम