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नज़्म
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जो कुछ न होगी तो होगी क़रीब छियानवे साल
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंग-ए-आज़ादी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
अभी इक साल गुज़रा है यही मौसम यही दिन थे
मगर मैं अपने कमरे में बहुत अफ़्सुर्दा बैठा था
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
गुलज़ार
नज़्म
ता-अबद जिन के मुक़द्दर में थी दुनिया अंधेर
ये मगर अज़्मत-ए-इंसाँ है कि तक़दीर के फेर?
अहमद फ़राज़
नज़्म
वो मुस्कुराती आँखें जिन में रक़्स करती है बहार
शफ़क़ की गुल की बिजलियों की शोख़ियाँ लिए हुए