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नज़्म
कहा ये सुन के गिलहरी ने मुँह सँभाल ज़रा
ये कच्ची बातें हैं दिल से इन्हें निकाल ज़रा!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
सँभाल रक्खा शराब ने और रही है मोहसिन ये रात मेरी
इसी ने मुझ को दिए दिलासे सुनी है इस ने ही बात मेरी
तारिक़ क़मर
नज़्म
भरी हुई रेल में चढ़ो तो तुम अपनी हुर्मत सँभाल रखना
नए ज़मानों का है तक़ाज़ा पराए होंटों पे गाल रखना