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नज़्म
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है
जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जो कुछ न होगी तो होगी क़रीब छियानवे साल
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंग-ए-आज़ादी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
आलम ये था क़रीब कि आँखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़