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नज़्म
क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर
और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर
मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दिलों में अहल-ए-ज़मीं के है नीव उस की मगर
क़ुसूर-ए-ख़ुल्द से ऊँचा है बाम-ए-आज़ादी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
दाम इक छोटे से कूज़े के हैं सौ जाम-ए-बिलूर
मोल लेने जाएँ इक क़तरा तो दें नहर-ओ-क़ुसूर
जोश मलीहाबादी
नज़्म
نہ تھا اگر تو شريک محفل ، قصور ميرا ہے يا کہ تيرا
مرا طريقہ نہيں کہ رکھ لوں کسي کي خاطر مےء شبانہ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
शरीक-ए-जुर्म हैं ये सुन के जो ख़ामोश रहते हैं
क़ुसूर अपना ये क्या कम है कि हम सब उन को सहते हैं