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नज़्म
कितने ग़ुंचे हैं जिगर-चाक गुलिस्ताँ में अभी
हर तरफ़ ज़ख़्म हैं बे-मिन्नत-ए-मरहम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
पर लिक्खे तो क्या लिक्खे? और सोचे तो क्या सोचे?
कुछ फ़िक्र भी मुबहम है कुछ हाथ लरज़ता है
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
मुश्तइल, बे-बाक मज़दूरों का सैलाब-ए-अज़ीम!
अर्ज़-ए-मश्रिक, एक मुबहम ख़ौफ़ से लर्ज़ां हूँ मैं
नून मीम राशिद
नज़्म
आँख के मुबहम इशारे से बुलाती है मुझे
एक पुर-असरार इशरत का ख़ज़ाना है वो चश्म-ए-दिल-नशीं