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नज़्म
चुस्त नुकीला ब्रज़िअर ये चीख़ रहा है
शर्म नहीं आती कुत्तों को चर्च के आगे खड़े हुए हैं
अज़ीज़ क़ैसी
नज़्म
ये चर्ख़-ए-जब्र के दव्वार-ए-मुमकिन की है गिरवीदा
लड़ाई के लिए मैदान और लश्कर नहीं लाज़िम
जौन एलिया
नज़्म
परे है चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम से मंज़िल मुसलमाँ की
सितारे जिस की गर्द-ए-राह हों वो कारवाँ तो है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़ाग़ दश्ती हो रहा है हम-सर-ए-शाहीन-अो-चर्ग़
कितनी सुरअ'त से बदलता है मिज़ाज-ए-रोज़गार
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मरज़ कहते हैं सब इस को ये है लेकिन मरज़ ऐसा
छुपा जिस में इलाज-ए-गर्दिश-ए-चर्ख़-ए-कुहन भी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
और अब चर्चे हैं जिस की शोख़ी-ए-गुफ़्तार के
बे-बहा मोती हैं जिस की चश्म-ए-गौहर-बार के
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
न जिस के दिल के दराँ कुंजियों से खोल सका
वो माँ मैं पैसे भी जिस के कभी चुरा न सका
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
گريہ ساماں ميں کہ ميرے دل ميں ہے طوفان اشک
شبنم افشاں تو کہ بزم گل ميں ہو چرچا ترا
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इक दफ़्तर-ए-मज़ालिम-ए-चर्ख़-ए-कुहन खुला
वा था दहान-ए-ज़ख़्म कि बाब-ए-सुख़न खुला