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नज़्म
कल्परिक्ष और आब आब-ए-कौसर सोचते हो दौर की
शर्म है गर चाह हो उस शहर में भी हूर की
ओम भुतकर मग़्लूब
नज़्म
जंगलों के बीच में आब-ए-रवाँ कौसर-सिफ़त
ऐ ख़ुदा क्या इस ज़मीं पर दूसरी जन्नत है ये
जमील अहमद जायसी
नज़्म
तन्हा हसीन हयात के साग़र को क्या करूँ
साथी नहीं तो बादा-ए-कौसर को क्या करूँ
राम लाल वर्मा हिंदी
नज़्म
कल हमें मिल जाएगा गर हौज़-ए-कौसर ही कहीं
आज क्यों प्यासे रहें हम ऐश-ए-मुबहम के लिए