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नज़्म
किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उस जान-ए-जहाँ को भी यूँही क़ल्ब-ओ-नज़र ने
हँस हँस के सदा दी कभी रो रो के पुकारा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जिस के पर्दों में नहीं ग़ैर-अज़-नवा-ए-क़ैसरी
देव-ए-इस्तिब्दाद जम्हूरी क़बा में पा-ए-कूब
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ
चश्मा-ए-आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़ल्ब-ए-इंसानी में रक़्स-ए-ऐश-ओ-ग़म रहता नहीं
नग़्मा रह जाता है लुत्फ़-ए-ज़ेर-ओ-बम रहता नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़ल्ब पर जिस के नुमायाँ नूर ओ ज़ुल्मत का निज़ाम
मुन्कशिफ़ जिस की फ़रासत पर मिज़ाज-ए-सुब्ह-ओ-शाम
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ज़ेहन-ए-आदम में है अफ़्कार की दुनिया आबाद
क़ल्ब-ए-इंसाँ में अमानत हैं अभी ग़म कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
कि जैसे चश्मा-ए-ज़ुल्मात में जले काफ़ूर
ये ढलती रात सितारों के क़ल्ब का ये गुदाज़
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
मुझे उस दश्त की इक इक कली से प्यार करने दे
जहाँ इक दिन वो मिस्ल-ए-गुंचा-ए-मस्ताना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
वो क़ल्ब और ज़ेहन का तसादुम जो गुफ़्तुगू में रवाँ-दवाँ था
वो उस के अल्फ़ाज़ की रवानी
तारिक़ क़मर
नज़्म
फ़ज़ा में मौत के तारीक साए थरथराते हैं
हवा के सर्द झोंके क़ल्ब पर ख़ंजर चलाते हैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मैं ने कब तेरी मोहब्बत से किया है इंकार
मुझ को इक लम्हा कभी चैन भी आया तुझ बिन