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नज़्म
किताब-ए-मिल्लत-ए-बैज़ा की फिर शीराज़ा-बंदी है
ये शाख़-ए-हाशमी करने को है फिर बर्ग-ओ-बर पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गूँजती है जब फ़ज़ा-ए-दश्त में बाँग-ए-रहील
रेत के टीले पे वो आहू का बे-परवा ख़िराम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी है कैसा तेरी महफ़िल में
यहाँ तो बात करने को तरसती है ज़बाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ख़ुदा का शुक्र है कि तुम उन से मुख़्तलिफ़ निकले
जो फूल तोड़ के ग़ुस्से में बाग़ छोड़ते हैं