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नज़्म
जहान-ए-फ़िल्म में, उल्फ़त का हर नख़रा निराला है
ये ऐसी दाल है जिस दाल में काला ही काला है
ज़रीफ़ जबलपूरी
नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जब माह अघन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
जौन एलिया
नज़्म
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था