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नज़्म
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो दोशीज़ा भी शायद दास्तानों की हो दिल-दादा
उसे मालूम होगा 'ज़ाल' था 'सोहराब' का दादा
जौन एलिया
नज़्म
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दर्द जब दर्द न हो काविश-ए-दरमाँ मालूम
ख़ाक थे दीदा-ए-बेबाक में गर्दूं के नुजूम
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हबीब जालिब
नज़्म
थमे क्या दीदा-ए-गिर्यां वतन की नौहा-ख़्वानी में
इबादत चश्म-ए-शाइर की है हर दम बा-वज़ू रहना
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़ाफ़िले में ग़ैर फ़रियाद-ए-दिरा कुछ भी नहीं
इक मता-ए-दीदा-ए-तर के सिवा कुछ भी नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उसी ज़माने में कहते हैं मेरे दादा ने
जब अर्ज़-ए-हिन्द सिंची ख़ून से ''सपूतों'' के
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
क्या जाने किस ख़याल में गुम थी वो बे-गुनाह
नूर-ए-नज़र ये दीदा-ए-हसरत से की निगाह