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नज़्म
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मुज़्तरिब है तू कि तेरा दिल नहीं दाना-ए-राज़
गुफ़्त रूमी हर बना-ए-कुहना कि-आबादाँ कुनंद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़ेर-ए-लब अर्ज़ ओ समा में बाहमी गुफ़्त-ओ-शुनूद
मिशअल-ए-गर्दूं के बुझ जाने से इक हल्का सा दूद
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जिस्म की एक एक बोटी गोश्त वाला ले गया
तन में बाक़ी थी जो चर्बी घी का प्याला ले गया
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मैं एक पत्थर सही मगर हर सवाल का बाज़-गश्त बन कर जवाब दूँगा
मुझे पुकारो मुझे सदा दो
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
उसे कहना दिसम्बर आ गया है
दिसम्बर के गुज़रते ही बरस इक और माज़ी की गुफा में डूब जाएगा
अर्श सिद्दीक़ी
नज़्म
मुसिर है मोहतसिब राज़-ए-शहीदान-ए-वफ़ा कहिए
लगी है हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता पे अब ताज़ीर अल्लाह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मियाँ बीवी चले बाज़ार को बहर-ए-ख़रीदारी
मिठाई फल सिवय्याँ इत्र जूते गोश्त तरकारी