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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
जौन एलिया
नज़्म
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिल-नवाज़ी की
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिए क़दमों के सुराग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद