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नज़्म
इस तरह लरज़े में है बुनियाद-ए-ऐवान-ए-फ़रंग
खा चुके हैं मात गोया शीशा-बाज़ान-ए-फ़रंग
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है